Thursday, March 1, 2012

Gazal

यू दौरे -गुजिस्ता ने हर बार रुलाये दोस्त
मुस्कान के लम्हे भी उधार जुटाए दोस्त,
सूखे पत्ते की तरह देखे है फलक उड़कर
कभी रेत की धरती पर पतवार चलाये दोस्त,
है जीस्त मेरे हिस्से में कदरन कर्जा सी
किस्त मुफलिश कैसे इस बार चुकाए दोस्त,
हर बार शबे-वादा कुछ ऐसे गुजरी है
हर बार सहर अपना इन्तजार कराये दोस्त,
मै उन्ही पत्थरों में अपने पैर खो आया
जो रस्ते तुमने हमबार बताये दोस्त,
वो नादानी थी या इश्क का पागलपन
जब कीकरों में गुलाब खिलाये दोस्त,

Tuesday, February 28, 2012

geet nahi likh sakta

नर्गिसी आँखों के, संदली बाहों के
प्रेम में आहों के,व्यक्तिगत  पीडाओं के
पुष्प झरने के, स्वपन मरने के
भीगी भीगी बरसातों के
विरह की लम्बी रातों के
कुछ विदा क्षणों के
कुछ जुदा क्षणों के
छाव के कभी धूप के
रंग के कभी रूप के
रुसवाई के
तनहाई के
मन मीत के
झूठी प्रीत के
                      .........गीत लिखे है मैंने .........
चून घोलकर पीने वाले बचपन की
बिन ब्याही बेटी बैठी पचपन की
कूड़े को बीनते बीनते
टुकडो को छीनते छीनते
जूठी पत्तल सकोरे चाटने वाले
एक कुर्ते को चार जगह बाटने वाले
आह ! कितनी तकलीफ देह
कोशिश है जीने की .........
नाउम्मीद पुरनम आँखों में

                                                          
जमींदोज उड़ न सकी पाँखो में
..................................................परवाज  नहीं ला सकता मैं
उजड़े दिल की धड़कन के
कर्कश साँसों की सरगम के
.................................................गीत नहीं गा सकता मैं
गीत नहीं लिख  सकता मैं .......

Monday, February 20, 2012


I

वेदना की हर सीम
तोड़कर गयी
बात कुछ ऐसी वो
छोड़कर गयी
अपनी ही रची हुई
उलझनों के
दबाव में ,तनाव में 
डूबा रहता हूँ
मुग़ल गार्डन में भी
उबा रहता हूँ
नाता तोड़ गया कोई
कितनी निर्ममता से
हल्के से निकल गया
जीवन की घनता से
रोज-रोज कलह कलेश में
प्रेम को भूली बैठी  थी
चौबीस घन्टे के समय बंध में
सौ -सौ  बार मुझसे ऐंठी थी
चोबारे की दीवार पर टंगे हुए
ताजमहल को उसे दिखाया
कुछ इतिहास भी समझाया
कहा प्रेम की यह अमिट निशानी है
दुनिया जिसको याद करे ऐसी कहानी है
बहुत किये प्रयास
मगर हुआ निराश
अंकुर कोई करुणा का
उसमे न फूटा
शेष भ्रम मेरा भी, पलभर में टूटा
चौबारे ने भी हसकर
कहा, मै ताज नहीं

II

दीवार के दूसरे छोर पर
तीर तलवारों, क्षत-विक्षत लाशों से भरा
रक्त पिपासु आकृतियों से
भरा हुआ चित्र था एक धरा
जिसमें अंतहीन युद्ध में रत
मनुष्य पशुजात
कर रहे है आघात-प्रतिघात
शायद इस चित्र का
उस पर प्रभाव था
इसलिए हमारे उनके मध्य
प्रेम का अभाव था
यदि तुम्हे प्रेम होता
इस चौबारे को मै ताज बना देता
खुद शाहजहाँ तुझे मुमताज बना देता
धुंध 


बाहर धुंध है
धुआं है धूल है
अन्दर द्वन्द  
मन की आँखों से भी
कुछ दिख नहीं पाता
शोर-ए-मरकज में
खड़े हैं
मगर सन्नाटा
नहीं टूटता
संकल्पों का अभाव
विकल्पों की भरमार
वातावरण विचित्र
सभी एक जैसे
सभी अपरिचित
आध्यात्मिक विक्षोभ है
पीडाएं बटती नहीं
धुंध छटती नहीं
धरा धूसर पर ये  
कैसा तिमिर आन पड़ा?

Poem dedicated to all AIDS patients


मैं भोक्ता और तुम भोग्या
ऐसा मैं नहीं सोचता हूँ
अपनी मनीषा और हृदय भावों
के आलोक में, पल-प्रतिपल
तुम्हे सजाता, खोजता हूँ
अखिल प्रकृति में खिले सुन्दर
पुष्प की तरह तुम
मेरी निर्मल आस्था
तुम तक पंहुचकर जीवन
शून्य, शिथिल स्वर्गिक
विस्तृत शोर में छायी
शालीन ख़ामोशी तुम
न जाने कितने कोणों से
मै तुम्हारा स्वागत करता
लेकिन...........
आज मुझे तुम्हारी
कुंठा और घुटन का
मुझसे क्षण - क्षण
बढती दूरियों के
कारण, अकारण लगे
मेरी आस्था, अनास्था
में नहीं बदली
मै इस रिश्ते को और
अधिक क्लासिकल बनाऊंगा
मुझे पता चला तुम्हे
एड्स है इसलिए
आज तुम्हे जी भर
भोगना चाहता हूँ
एड्स आत्मा तक न फैले
रोकना चाहता हूँ

Sunday, February 19, 2012

Chubhan




इन आँखों में
कांच की तरह चुभती है
तुम्हारी याद
चकवई हो गयी है हर रात
स्वपन भी हो गए है नाराज
निहारता हूँ रात भर
टूटती हुई तारक रेखों को
शर्म से पीले पड़ रहे
भोर के चन्द्रमा को
पीड़ा के झरोखों से
टूटती-चटकती कलियों की
प्राय: मौन मद्धिम आवाजें
तोडती है सन्नाटा
जिन रिश्तों पर
कभी इतराता  था,
झेल रहा हूँ उनकी टूटन
कब तक करू, अहं से बात
अस्तित्व से आँख-मिचौली
कर रहा फिर वही प्रणय-निवेदन
हो सके, धो सको, तुम
अपने नयनों के खारे पानी से
इन कातर धुंधले-शीशो को

Fatehpur Train Incident


दर्द पराया भी अपना होता है
                                             इतना अपना
जैसे अस्थियों से चिपकी मज्जा
काँटों पर सजे फूल के अहसास सा
बादलों के संग वाष्प सा
वृक्षों के साथ पत्तो सा
जीवन पतझर में बसंत जैसा
                             कितना अपना होता है
दुर्घटना, कोई भी हो, कही  भी
क्षत- विक्षत लाशें और
खून से लथपथ चेहरे
माँ से बिछुड़े मासूम  देखकर
हज़ारों मील दूर, फिर भी
कितने नजदीक से लगते है
हमारी सुप्त संवेदनाये
स्वत: ही वहां झुक जाती है
साँसे कुछ रुक जाती है
क्योंकि दर्द जोड़ता है
                                   हमें एक-दूसरे  से